तेल अवीव/रियाद (छत्तीसगढ़ दर्पण)। इजरायल में सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहे नेता सऊदी अरब राज्य द्वारा संचालित टीवी चैनल पर बार बार दिखाई देते रहते हैं, एक अमेरिकन-इजरायल पर्यटक सऊदी अरब पहुंचने के बाद अपने आप को "सऊदी अरब का प्रमुख रब्बी" घोषित करता है और सऊदी अरब का एक प्रमुख व्यापारिक परिवार इजरालय की दो कंपनियों में भारी निवेश करता है और इसे छिपाने की कोशिश भी नहीं करता है। हाल के समय में घटी ये घटनाएं आज से 10 या 15 साल पहले तक सोचने पर अकल्पनीय लग सकती थीं, लेकिन अब सऊदी अरब और इजरायल गुप्त संबंधों से आगे बढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं। लेकिन, सवाल ये है, कि इजरायल और सऊदी अरब के बीच की दुश्मनी भले ही खत्म हो गई हो, लेकिन क्या ये दोनों देश दोस्त बनेंगे?
मध्य-पूर्व में लगातार बदलती राजनीति
पिछले कुछ सालों में मध्य-पूर्व में राजनीति काफी तेजी से बदली है और इस क्षेत्र में मौजूद देशों के बीच काफी तेजी से प्रतिद्वंदिता बढ़ी है, यहां तक की संयुक्त अरब अमीरात भी अब सऊदी अरब का 'छोटा भाई' बनकर नहीं रहना चाहता है और इस क्षेत्र के देश काफी सावधानीपूर्वक व्यावहारिक आर्थिक और सुरक्षा संबंधों की तरफ कदम आगे बढ़ा रहे हैं। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और वास्तविक नेता मोहम्मद बिन सलमान अपने देश की अर्थव्यवस्था को तेल-निर्भर ही बनाकर नहीं रखना चाहते हैं, लिहाजा वो अपनी योजनाओं में तेजी लाना चाहते हैं, जबकि इजराइल छोटे खाड़ी देशों के साथ 2020 की राजनयिक सफलताओं की बुनियाद पर नये संबंधों का निर्माण करने का इच्छुक है। प्रिंस मोहम्मद ने इस साल की शुरुआत में इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा विवादित माने जाने वाले इजरायल को लेकर कहा था, कि "हम इजरायल को एक दुश्मन के रूप में नहीं, बल्कि एक संभावित सहयोगी के रूप में देखते हैं।" क्राउन प्रिंस का ये बयान यही माना गया, कि सऊदी अरब एक बार फिर से इजरायल के साथ अपने संबंधों का पुनर्मुल्यांकन कर रहा है।
सऊदी और इजरायल में कैसे रहे संबंध?
1948 में इजराइल की स्थापना के बाद के दशकों तक सऊदी अरब और उसके फारस की खाड़ी के पड़ोसियों ने यहूदी राज्य के साथ संबंध नहीं बनाए, बल्कि इन सभी मुस्लिम देशों ने फिलीस्तीन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया और इजरायल को हमेशा दुश्मन देश ही माना। आज भी हालात कुछ ज्यादा बदले नहीं हैं और मुस्लिम देशों की बहुमत के आधार पर देखें, तो मतदान से यही पता चलता है कि, खाड़ी में एक विशाल बहुमत इजरायल को सिर्फ एक अन्य देश के रूप में स्वीकार करने का विरोध करता है और इजरायल के साथ व्यापारिक संबंध बनाने को घृणित मानता है, लेकिन इन देशों की स्वीकार्यता या फिर अस्वीकार्यता से ज्यादा मायने ये रखता है, कि सऊदी अरब और यूएई क्या चाहता है और इन दोनों देशों ने कम से कम इजरायल के लिए अपने घर के दरवाजे तो खोल ही दिए हैं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इजरायल के प्रति सऊदी की विदेश नीति का अध्ययन करने वाले एक शोधकर्ता अब्दुलअजीज अल्घाशियान का मानना है, कि "यह संबंधों के गर्म होने के बजाय संबंधों के पिघलने का वक्त है। और यह अभी भी बहुत महत्वपूर्ण है।" इजरायल के लोग अब काफी आसानी से किसी तीसरे देश के पासपोर्ट के जरिए सऊदी अरब आने-जाने लगे हैं और अपना कारोबार चलाने लगे हैं, जाहिर है इसका फायदा भी सऊदी अरब को हो रहा है, क्योंकि जहां इजरायली हैं, वहां साइंस और टेक्नोलॉजी है और सऊदी अरब इस बदलाव की हवा को महसूस कर रहा है।
बहने लगा है रुपया...
क्वालिटेस्ट 2019 में अंतरराष्ट्रीय निवेशकों द्वारा अधिग्रहित एक इजराइली इंजीनियरिंग और सॉफ्टवेयर-टेस्टिंग कंपनी है। यह सीधे सऊदी अरब में काम नहीं करती है, लेकिन इस कंपनी के यूरोप, इजरायल और मध्य पूर्व के डायरेक्टर शाई लिबरमैन ने कहा कि, वो अपनी कंपनी के प्रोडक्ट्स को किसी तीसरे देश को बेचते हैं और फिर वो देश सऊदी अरब में उन प्रोडक्ट्स को बेचती है और ये बिक्री काफी ज्यादा है। और ये निवेश और व्यापार सिर्फ एकतरफा नहीं है, बल्कि सऊदी अरब से भी रुपये का बहाव होने लगा है। सऊदी अरब की कंपनी मिठाक कैपिटल एसपीसी, जो अलराझी परिवार का है, जिसे सऊदी बैंकिंग स्कियंस नियंत्रित करता है, इस कंपनी ने इजरायल की दो कंपनियों मोबिलिटी इंटेलिजेंस फर्म ओटोनोमो टेक्नोलॉजीज लिमिटेड और लंदन में रजिस्टर्ड इजरायली कंपनी ट्रेमर इंटरनेशनल लिमिटेड में भारी निवेश किया है और सऊदी राज परिवार इस बात से परिचित है।
इजरायल से क्यों संबंध बनाना चाहता है अरब
गल्फ देश ईरान को अपनी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं और अपनी साझा चिंताओं को दूर करने के लिए अरब देशों ने इजरायल से 'गुप्त समझौते' स्थापित किए हुए हैं। जिसके अंतर्गत हथियारों की खरीददारी तक शामिल है। लेकिन, अब अरब देश आर्थिक विकास चाहते हैं और प्रिंस सलमान ने इसके लिए विजन-2030 भी बनाया हुआ है, जिसके तहत सऊदी अरब में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन शामिल है और सऊदी अरब को टेक्नोलॉजी के हिसाब से उन्नत बनावा है, लिहाजा प्रिंस सलमान की पहली पसंद इजरायल रहा है और वो इजरायल की मदद से सऊदी अरब में टेक्नोलॉजी हब स्थापित करना चाहते हैं।
बेंजामिन नेतन्याहू का इंटरव्यू
ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक, मिथाक कैपिटल के प्रबंध निदेशक मुहम्मद आसिफ सीमाब ने कहा कि, "हमें इजराइल का इनोवेशन और टेक्नोलॉजी को लेकर उनकी संस्कृति काफी पसंद है और हम इससे लाभ उठाने के तरीके खोजने की कोशिश करते हैं।" वहीं, सऊदी अरब सरकार ने शामिल होने वाले नये अधिकारी इजरायल के साथ संबंधों को खुले तौर पर विस्तार देने का समर्थन कर रहे हैं। इजरायल के पूर्व प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का सऊदी टेलीविजन चैनल अल अरबिया पर साक्षात्कार लिया गया था, जो हिब्रू भाषा के नक्शे के सामने बैठे थे और ईरान के साथ संभावित परमाणु समझौते के खतरे की चेतावनी दे रहे थे। वहीं, रब्बी जैकब हर्ज़ोग भी एक नाम हैं, जिन्हें सऊदी राजधानी रियाद में विदेशी श्रमिकों के एक छोटे यहूदी समुदाय में मंत्री बनने की अनुमति दी गई है।
क्या सऊदी अरब से मिलेगा पुरस्कार?
जब साल 2020 में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इजरायल के साथ राजनीतिक संबंध जोड़ लिए, जिसे अब्राहम समझौते के तौर पर जाना जाता है, तो यही संदेश मिला, कि सऊदी अरब भी निकट भविष्य में इसका पालन करेगा। इजराइली नेताओं के लिए, सऊदी अरब से मान्यता प्राप्त करना मध्य पूर्व की जियोपॉलिटिक्स के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भी एक प्रतिष्ठित पुरस्कार होगा और इजरायल की कोई भी सरकार हो, उसकी सबसे बड़ी कोशिश यही होती है। लेकिन, सऊदी अरब के लिए भी ये फैसला अचानक लेना मुश्किल है। सऊदी अरब में धार्मिक कट्टर संगठन अभी भी हावी हैं और सऊदी अरब के लिए अपने पड़ोसी इस्लामिक देशों को भी इजरायल से संबंध स्थापित करने के लिए मनाना आसान नहीं होने वाला है, लिहाजा अभी भी व्यापारिक बाधाएं मौजूद हैं और रियाद का दौरा करने वाला एक इजराइली व्यापारी मालिक बताते हैं, कि वो अभी भी तेल अवीव सीधे फोन नहीं कर सकते हैं और वो वो अकेले पैसे ट्रांसफर नहीं कर सकते हैं।
सऊदी में इजरायल को लेकर राय
वाशिंगटन इंस्टीट्यूट फॉर नियर ईस्ट पॉलिसी ने एक सर्वे में सऊदी अरब के लोगों के बीच इजरायल को लेकर राय जानने की कोशिश की थी, जिसमें पता चला कि, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इजरायल के साथ जो अब्राहम अकॉर्ड किया, उसको लेकर निराशा है और सिर्फ 19 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक सऊदी अरब के लोगों का मानना है, कि इजरायल के साथ संबंध जोड़कर सही फैसला लिया गया। हालांकि, जिन लोगों को अब्राहम समझौता पसंद नहीं आया है, उनमें ज्यादातर लोगों का ये मानना है, कि इजरायल के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है और इजरायल के साथ अनौपचारिक संबंधों को स्वीकृति देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। हालांकि, सभी लोगों का ऐसा नहीं सोचना है। इसी साल जुलाई महीने में मक्का की भव्य मस्जिद के एक इमाम ने जुमे की नमाज़ की अगुवाई करते हुए यहूदियों के देश पर कब्जा करने के नारे लगाए और इस खातिर जुमे की नमाज में प्रार्थना की। वहीं, जब राष्ट्रपति बाइडने की यात्रा के दौरान एक यहूदी पत्रकार 'पवित्र शहर मक्का' में दाखिल हुआ, तो उसे वहां से बाहर निकाल दिया और उसकी निंदा की गई।